ईब के शहरिया पेड़ ना होईब
आज तो मेरी पत्तियाँ भी झुलस रही हैं । अरे गर्मी से नहीं । उस सूरज महाराज की कृपा है । जो मछुआरा बन पानी को फांसता फिर रहा है । ए.सी. से गर्म हवाओं ने मुझे पूरी तरह से झुलसा ही दिया है । क्या कहा ? जरा जोर से बोलो। मेरी उम्र हो चुकी है और आजकल मैं जरा ऊंचा सुनता हूं । नाम ? नाम मेरा पेड़ ही तो है , अच्छा तुम चाहो तो शहरिया पेड़ कह सकते हो । मेरी पहचान , मेरी पैदाइश , मेरा कुल , गोत्र सब बताता हूं भई । जरा धीरज तो धरो…। मेरी पैदाइश यही शहर दीवार के पीछे ही हुई थी । मेरी नन्हीं कोंपलों का अन्नप्राशन धूल व बारिश के रीसते पानी से ही हुआ था । हाँ आए थे । बहुत से मेहमान । जिस घर के पिछली दीवार पर मैं उगा था ना वहां की कंचों सी आंखों वाला बच्चा जो झांक – झांक कर मुझे देखता था । बच्चा शायद सोचता था कि बिना गमले , मिट्टी के भी भला कोई पौधा उगता है क्या ? उसने तो शहर में महंगे कलेवर वाले गमलों में , नर्सरी से मंगाई गई नाजुक पौधों को ही देखा था । कंपोस्ट खाद के बिना जिनका अस्तित्व ही नहीं हो सकता है । भई हमारा क्या ? हम तो बहादुर शाह जफर की गजल सरीखे हैं ” ना किसी के आंख का नूर हूं , ना किसी के घर का चिराग हूं । ” कुछ गलत कहा हो तो माफ करना , भई मैं जरा ऊंचा सुनता हूं और मेरी याददाश्त भी जरा सुस्त हो रही है ।

हां तो हम कहां थे ? मेरे अन्नप्राशन में तो घर की मालकिन भी थी । पड़ोसन भी आई थी । घर की मालकिन को हमारा जन्म लेना जरा भी नहीं सुहाया था ।वो बुदबुदाती थी ” मुआ जाने कहां से उग आया । ” और हम अवतरित भी ऐसे स्थान पर हुए थे कि उनका हाथ हमारे गले तक नहीं पहुंच पा रहा था । अगर हम गिरफ्त में आते तो कब के काल कलवित हो चुके होते ।
अब रही हमारी बात हमारे गोत्र की तो हम बताये देते हैं हम पीपल के वंशज हैं । हमारे सहोदर आसपास के देवालय , मंदिरों , तालाब पार में आपको दिख ही जाया करेंगे । हमारे पूर्वजों की तो शान ही निराली थी । अब रही बात हमारे मिजाज की तो भई अब हम शहर में हैं तो शहरिया ही कहलायेंगे ना ….। क्या कहा अब बदसूरत , अवांछनीय है ?ठीक ही सुना । अगर मन्नत में मांगे गए होते तो आज किसी देवी स्थान , मंदिर , देवालय के या किसी शानदार ड्राइंग रूम में अपने हाथ पैर नुचवाकर कर “बोनसाई” बनकर पसरे होते । खैर भ्रूण हत्या की कोशिश भी हमारे साथ भी की गई थी ।
शहर की इमारत के मलमल में हम भैया ” टाट के पैबंद ” । तो हमारी हत्या के लिए क्या-क्या जतन किये गये । किसी ने दीवार से गरम पानी रितोया ( बहाया ) , किसी ने एसिड । पर दीवार से ऊपर से नीचे बहते तक कुछ अंश ही हमारा जला । पर कोख बची रही जिससे पुनः नई जड़े फूटी….। जवानी हममें भी ऐसी आयी कि गमले में उगे पौधों की जवानियां भी अश- अश कर उठे । गदराया यौवन , बलिष्ठ शाखाएं , हरीतिक्त पत्तियां ऐसे लचकती थी । जैसे कि इनकी नोकों पर नटनी करतब दिखा हो रही हो । शाखाएं ऐसी कि गमले के पौधों को जिम जाने पर भी ऐसी सुपुष्षट बॉडी ( देह ) ना मिले । रंगत का क्या कहना । कहीं गहरा हरा , कहीं पीला , कहीं ललछौंवा तो कभी सुनहरे रंग की दिखती है मेरी पत्तियां ।
शहर की दोपहरी में जब सूरज मछुआरा पानी को फांसता फिरता है तब भी हमारी लुनाई देखते ही बनती है । ” इस सूरज के घनत्व में तरलता है तो वह हमारी छांव है । जब धूप चढ़ती है और धूप में छाँव के बंटवारे होते हैं । तो हमारी पत्तियां बिल्कुल खामोश रहती है । सबसे ऊपर की शाखों पर धूप की कड़ाही में मेरे पत्ते तले जाते हैं तो उन्हें उनके घपचियानेको लेकर कोई मलाल नहीं होता । क्योंकि नीचे की पत्तियों को सूरज छांव जो बांटता है । ”
गमले के पौधों के ऊपर तो हरी तालपतरी तानी जाती है फिर भी वो बेचारे झुलस जाते हैं । कीड़े – मकोड़े , पक्षियों , कौओं की बारात मेरे बदन पर ऐसे नाचते हैं जैसे कि महादेव की बारात में भूत , परेत , मसान , पिशाच नाचा किये होंगे । जिसे जहां ठौर मिला वो वहां अपना आसरा बना लेता है । भई हमको तो गमलों के पौधों से बड़ी उलझन होती है ।मुआ एक कीड़ा उनकी देह पर चढ़ा नहीं की महंगी दवाइयों का छिड़काव उन पर हो जाता था । अब तो गिलहरियों को भी हमने न्योता दे दिया है ।
क्या कहा ? शिक्षा – दीक्षा हम कभी स्कूल गये ही नहीं । मंदिर के घंटियों से जागना, चिड़ियों के चहचाहट से गिनती , हमारी भाषा ” धूप – धूप में छाया के अनुवाद से होती है ।” मौसम के अखबार में हमारा रिजल्ट निकलता है । बारिश में तिमाही तो ठंड में छःमाही की परीक्षा होती है । हम बोर्ड की परीक्षा में तभी उत्तीर्ण माने जाते जब पतझड़ में गिरे पत्तों से दोगुने नए पत्ते हमारी देह की अंकसूची में नंबर भरते । कीड़े , मकोड़े , पक्षी , कौंवे , गिलहरी ही हमारे परीक्षक हुआ करते हैं । जो बिना लाग लपेट मौसम के पंचांग में हमारा रिजल्ट छाप देते हैं ।
शहर में उगने के कारण हमने इसके भारी कीमत चुकाई है । गांव के पीपल में जहां जुगनूओं की बारात सजती है यहां शहर में हमारे तन पर बल्बों की झालर लपेट दी जाती है । इनकी तपिश से मेरे बदन में छाले पड़ जाते हैं । पर इनसे उनको क्या ? ” बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना ” जैसे झालर का सेहरा बांध मैं भी नाच लेता हूं । आज मैंने ऊंची आवाज में कुछ कहने की आवाज सुनी । अब इस पेड़ को काटना ही पड़ेगा । बेकार की गंदगी फैलाता है । जब देखो तब जगह मांगता फिरता है । कभी इस डंगाल ( शाखा ) को कभी उस डंगाल के लिये । और इस मुस्टंडे पेड़ की मुस्टंडई तो देखो खा – खाकर मुटा रहा है । हाँथ – पाँव ( जड़ों ) को फैला रहा है । रामसेतु बन गया है । जिस पर फुदकती गिलहरियां छत पर सुखाई गई गेहूं को खा रही है, मिर्च कुतर रही है और तो और इसकी दादागिरी को देखो । इसकी छाँव अब गमलों के पौधों पर ” बेजा कब्जा ” किए जा रही हैं ।
मेरा तो डर के मारे काटो तो खून नहीं । हे प्रभु मेरी अर्जी कौन सुने ? पर अगले ही दिन दो पेड़ कटईया आये । दोनों ने मेरे अनावृत्त यौवन को तौला,परखा । फिर कहा अभी इससे कोई खतरा नहीं । इसकी टहनियों को काँट – छाँट कर जरा छोटा कर देते हैं । फिर क्या था । चीरहरण हुआ मेरा , मेरे तन को ढकने वाली शाखाओं,पत्तियों को मेरे तन से हटा दिया गया । मैं शर्म से पानी- पानी हो गया । जाने उन्होंने मुझे जीवित क्यों छोड़ा ? रोज रात को आक्सीजन देने वाला मैं खुद को ही आज निष्प्राण सा महसूस करने लगा हूं । ” मौसम के हरकारे आते , पत्ते डाकिया बन संदेश सुनाते, गिलहरी सुख-दुख बांचती ” । समय बीतता गया । शहर की धूल , ए.सी. की हवा से मेरी सेहत अब खराब रहने लगी । मेरी उम्र हो रही है । पर आज तो समय से पहले ही मृत्यु आ गई हो । ऐसा लग रहा है । बड़ी सी आरि , दरांती लिए दो यम के दूत मेरी ओर बढ़े चले आ रहे हैं । मेरी जड़ों के मकान के टॉयलेट को जाम कर दिया था ना । आज मेरी हत्या निश्चित थी । पर मरने से पहले मैं अपनी वसीयत करना चाहता हूं ।
मेरी अस्थियाँ किसी मंदिर में रख दी जायें और कोख ( जड़ों ) को किसी गांव में रोप दिया जाय , मेरी अस्थियों से किसी बूढ़े को लाठी मिल जाये , मेरी जड़ के सत्व से किसी मरीज का भला हो जाये । एकाध कोपल किसी चौराहे पर रोप दी जाये । जहां ये अपनी शाखाओं से ,जटाओं से बच्चों की खिलखिलाहट , गिलहरियों की फुदकन , पनिहारिनों का कलश ठौर , संध्या दीपक रखने का अलाव बन सकूं । जानता हूं , यह बहुत बड़ी ख्वाहिश है । मेरा गुनाह मुझे पता है कि मैं पेड़ हूं वह भी शहरिया । शहर के कंक्रीटों भयावह जाल में मुझ जैसे पेड़ का भला क्या काम ? पर पेड़ तो पेड़ होता है ना?
प्रकृति रोप दे जहां भी जिसको,
पेड़ वहीं का बाशिंदा हो जाता है ।
ना करो शक मेरी नियत पर,
पेड़ कभी गंवईया ना कभी शहरिया होता है ।
दे दे जो एक मुट्ठी माटी और एक मुट्ठी आकाश,
पेड़ उसी का हमसाया हो जाता है ।
पेड़ ना कभी गंवईया,
ना कभी शहरिया होता है…………….।
