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मजदूर हूँ मैं लेकिन आज मैं मजबूर हूँ
शहर में भटक रहा हूँ गाँव से भी दूर हूँ ।
गाँव को छोड़ रोजी-रोटी की तलाश में
चार पैसे कमाने को शहर में आया हूँ ।
हड्डियाँ गलाकर उद्योग चलाया उनका
ईमानदारी से काम का ये इनाम पाया हूँ ।
मतलब नही रहा तो मुँह मोड़ लिये उसने
शून्य से शिखर पर जिन्हें मैं पहुंचाया हूँ ।
सियासत का लॉक डाउन यहाँ कहाँ हुआ
राजनीति के खुले बाजार को मैं गरमाया हूँ ।
चाहे मिडिया हो चाहे हो साहित्य समाज
हर किसी के जुबाँ पर आज मैं ही छाया हूँ ।
इतने हिमायतीदार हुए है आज यहाँ मेरे
फिर भी दर – दर ठोकरे मैं ही खाया हूँ ।
अपने लिये मैं अपने तकदीर से भी लड़ा हूँ
सब विमर्श पीछे हुए आगे आज मैं खड़ा हूँ ।
फिर भी संकट के समय में निसहाय पड़ा हूँ ।
हर परिस्थिति में राष्ट्रहित का ध्यान रखा हूँ
मजदूर होने का फिर भी अभिमान रखा हूँ ।
