मानसून एक दिन पहले आ गया ।new hindi story 2020

क्या कहा ? मैं एक दिन पहले आ गया । अरे हां भई तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट पड़ा । मेरे साथ तो बादलों के , हवाओं के , लंगर - लश्कर साथ में होते हैं ना । क्या कहा मेरी रंगत बदल गई है । बिल्कुल ठीक कहा तुमने , सब कुछ तो बदल गया ।

सैकड़ों वर्षो पहले मेरी मनुहार की जाती थी ।मल्हार राग की रचना करने वाले तानसेन से ही पूछ लो ।कितने प्यार से , लाड़ -दुलार से , मुझे न्यौता दिया जाता था ।

कभी हवन के सुगंधित सामग्रियों की सुगंध द्वारा मुझे रिझाया जाता तो कभी मंत्रोच्चार द्वारा मुझे संदेश भेजा जाता । और मैं भी झूम - झूम कर बरसता था । और कालिदास की " मेघदूत " कृति से मैं संदेशवाहक की भूमिका भी निभाता था।

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देश - काल , समय के अनुसार मुझे भी बदलना पड़ा । मुझे तो बादलों के ढोल - नगाड़ों की थाप पर , पानी की बूंदों का सेहरा बांध वसुधा की पत्तियों पर , शाखों पर , पर्वत - पहाड़ों पर , थिरकना भाता है ।

जब मैं बरसता हूं तो पानी की बूंदों के साथ ताल , तालाब , नदियां , समंदर सभी खुश रहते हैं । अरे मानुष की बात तो छोड़िए , पशु - पक्षी सब प्रसन्न होते हैं । पशुओं की खाल पर से मैं गुदगुदी करते फिसलता हूं तो ऊंचे परवाज वाले पक्षियों के पंखों पर पूरे आकाश भी घूम आता हूं ।

बदलते वक्त के साथ इतना कुछ बदल गया । मेरे राह के साथी घने जंगलों , निरीह वृक्षों को जब काटा गया तो भला मेरा सृजन कैसे होगा ? दुष्परिणाम मेरा उत्पादन कम होता गया ।

पहले तो पग- पग में छोटे- बड़े कानन ,जंगल वृक्ष मेरी अगवानी में खड़े मिलते थे । पहाड़ों के घर मेरा ठौर हुआ करता था । वसुधा के जलवाष्प पहले मेरे घर गर्मियों में छुट्टी मनाने आते हैं , फिर उन्हीं की ठंडक से बादलों की तश्तरी में सजा कर फिर धरती की ओर बारिश के रूप में मुझे परोसा जाता था ।

अहा जब मैं गांव , शहर , खेत - खलिहानों में बरसता हूं तो पूरी धरती धानी चुनर ओढ़ कर शर्माती फिरती है । किसानों के , बैलों के चेहरों की रंगत देखते ही बनती है । मेरी आगवानी में बागों में झूले भी बांधे जाते हैं , और कितनी कागज की कश्तियों को मेरा इंतजार रहता है , यह बच्चों से पूछ लो ।

कितनी नवविवाहिताएं पीहर से संदेश भेजती है । यह उनकी कलाइयों की चूड़ियों से पूछ लो ..... । अरे भई मैं तो सदियों से समय का पाबंद रहा हूं । पर आज मेरी रफ्तार जरा सी तेज करनी होगी ना ।रास्ते में व्यवधान कितने हैं ? अम्लीय वायु मेरे भीतर बिना मेरी इजाजत के आ जाता है और अम्लीय वर्षा के रूप में मैं बदनाम होता हूं ।

हजारों कारखाने से उठते प्रदूषित वायु से मैं खाँस - खाँस कर बेहाल हो जाता हूं । ऊपर से भयानक प्रदूषण जगह-जगह मेरा रास्ता रोके खड़े रहते हैं । बताओ इतनी बाधाओं से भला एक अकेली जान कैसे निपटें ?

गगनचुंबी इमारतें , कटते वन ,कारखानों से निकले धुँए से मेरा जीना दूभर हो गया है । पर मैं अपने कर्तव्य से कैसे मुंह मोड़ मलूँ । मुझे जिस कार्य के लिए सृष्टि ने रचा है उस कार्य को तो मुझे हर हाल में करना ही है ।

मानव जाति गलतियों पर गलतियां किए जा रही है मैं बस खामोशी से सह रहा हूं । और ऊपर से दुनिया जहान के ताने कि मैं बदल गया हूं । खंड वर्षा करता हूं । कहीं अकाल तो कहीं भुखमरी ला रहा हूं । यह सुन - सुन कर मेरी आत्मा छलनी हो जाती है ।

भला मानव जाति जिनका अस्तित्व मेरे से ही है तमाम इतिहास , संस्कृतियों का गवाह और उद्गम स्रोत मैं हूं यह जान कर भी क्या मैं वादा खिलाफी कर सकता हूं ? मेरा पोर - पोर अब दुखने लगा है । मैं तो सृष्टि के प्रारंभ से ही अपना कार्य करता आया हूं पर अब इतनी थकान , अरुचि जो अभी हो रही है वैसी पहले कभी नहीं हुई थी ।

जहरीले हवा वातावरण में घुली हो ऐसा ही नहीं है अब तो मेरे ही बच्चों की शहादत वाले बारूद की गंध मेरी शरीर में नासूर की तरह चुभ रहे हैं । कहीं आतंकवाद तो कहीं नक्सली बारूदों का प्रयोग कर रहे हैं ।

मानुष गंध , चीथड़ों के कण , हजारों यतीम बच्चों के उदास आंखें , शहीदों के मांओ के " आंसू से रिक्त आँखे " उन सबके चुभते प्रश्नों का सामना करते - करते मैं थक चुका हूं । सिर पकड़ कर बैठे किसानों के कुम्हलाये चेहरे मुझे रुला देते हैं । पर मेरे आंसू कहां सबको दिखते हैं ? वो तो बारिश में भूल जाते हैं ।

अब तो मेरी तासीर नाली में बहते पानी जैसे हो गई । पर मैं तुरंत उठता हूं पूरे जोश के साथ , बादलों के लंगर लश्करों के साथ , तमाम शहीदों के खून से रंगी वादियों , किसानों की उदासी , तालाबों की मायूसी , पशुओं की पीड़ा , पेड़ों के अंतरनाद , मानव जाति के चित्कार , इन सब को धोने की उनके चेहरों पर फिर से खुशहाली दिख जाए इसी आशा के साथ मैंने अपनी रफ्तार बढ़ा दी है । तभी तो एक दिन पहले आ पहुंचा हूं । और लोग कहते हैं कि मानसून एक दिन पहले आ गया ।

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