सहपाठी की सीख

 बात थोड़े समय पहले की है, वर्ष 1997 माह फरवरी का, जब मैं (ऋषि कुमार दीक्षित) आगरा के एक वोकेशनल इंस्टीट्यूट से बीएससी (कम्प्यूटर) कोर्स के द्वितीय सेमेस्टर में अध्ययनरत था। क्लास में सभी मिलजुल कर बैठा करते थे।

छात्र-छात्राएं आपस में बैठकर विषय से संबंधित समय-समय पर चर्चा किया करते थे। कई बार ऐसा समय आया, जब मैं अपनी सहपाठी के साथ चर्चा करता था।

एक बार जब मैं अपनी सहपाठी के साथ चर्चा कर रहा था, तो मन में उसको चॉकलेट (बार- 1,रुपए 10) देने का विचार आया, जो मैंने अपने स्वयं के खाने के लिए रखी थी, बैग से निकालकर उसको देने के लिए हाथ बढ़ाया। 

लगभग चार-पांच सेकंड सोचने के बाद हुए वार्तालाप का विवरण - 
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सौजन्य :-twitter.com

सहपाठी – क्या यह चॉकलेट मेरे लिए लेकर आए हो?
ऋषि – हां।
सहपाठी – चॉकलेट के पैसे कहां से आए?
ऋषि – मुझे मेरे पिताजी ने दिए हैं।
सहपाठी – पैसे तुम्हारी पढ़ाई के लिए दिए होंगे न।
ऋषि – हां।


सहपाठी – क्या तुमको इस प्रकार से चॉकलेट में पैसे खर्च करने चाहिए? पिता के पैसे को इस तरह बरबाद नहीं करना चाहिए। जब खुद कमाओगे तो जानोगे न।
ऋषि – —–
सहपाठी – बताओ न।
ऋषि – तुमने सही कहा।
सहपाठी – मैं इसे नहीं ले सकती।
ऋषि – ठीक है, आगे से ध्यान रखूंगा।
सहपाठी – कोई बात नहीं।चलो अपने विषय पर ध्यान देते हैं।

मुझे ऐसी सीख मिली जिसको मैनें अपने जीवन में अपनाया। सच में स्त्री बहुत ही महान होती है। मेरा उन सभी माता पिता को नमन जो अपने बच्चों में इतने अच्छे संस्कार भरते है। मेरी उस सहपाठी को भी मैं नमन करता हूं, जिसने मुझे जीवन जीने का तरीका बताया। कभीभी माता पिता के पैसे को अनावश्यक खर्च नहीं करना चाहिए। कितनी मुश्किल से धन आता है।

(यदि मेरी इस घटना से किसी को कोई दुख पहुचा हो, कृपया अवगत करा दें, मैने केवल स्त्री की महानता का वर्णन किया है)।

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